प्रयागराज का इतिहास: सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार भगवान ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना करने से पहले यज्ञ करने के लिए धरती पर प्रयाग को चुना और इसे सभी तीर्थों में सबसे ऊपर, यानी तीर्थराज बताया।
पुराणों अनुसार प्राचीन समय में प्रयाग कोई नगर नहीं था बल्कि तपोभूमि और तीर्थ था। मान्यता अनुसार यह तीर्थ क्षेत्र लगभग 15 हजार ईसा पूर्व से विद्यामान है। यहां 3 हजार वर्षों से कुंभ का आयोजन होता आया है।
'प्र' का अर्थ होता है बहुत बड़ा तथा 'याग' का अर्थ होता है यज्ञ। 'प्रकृष्टो यज्ञो अभूद्यत्र तदेव प्रयागः'- इस प्रकार इसका नाम 'प्रयाग' पड़ा। दूसरा वह स्थान जहां बहुत से यज्ञ हुए हों। तीर्थों का राजा होने के कारण इसे प्रयागराज कहा गया है।
पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने यहां पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था। इस यज्ञ में वह स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान एवं भगवान शिव उस यज्ञ के देवता बने थे। तब अंत में तीनों देवताओं ने अपनी
शक्ति पुंज के द्वारा पृथ्वी के पाप बोझ को हल्का करने के लिए एक 'वृक्ष' उत्पन्न किया। यह एक बरगद का वृक्ष था जिसे आज अक्षयवट के नाम से जाना जाता है। यह आज भी विद्यमान है।
अमर है अक्षयवट: मुगलों ने इस वृक्ष को नष्ट करने के बहुत प्रयास किए। इसे खुदवाया, जलवाया, इसकी जड़ों में तेजाब तक डलवाया। किन्तु वर प्राप्त यह अक्षयवट आज भी विराजमान है। आज भी औरंगजेब के द्वारा जलाने के चिन्ह देखे जा सकते हैं।
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